दिनांक- 17 अप्रैल 2022
प्रेस विज्ञप्ति संख्या-0329
दुमका साहित्य उत्सव के दूसरे दिन के प्रथम सत्र में "पुस्तकों के इतिहास" पर परिचर्चा आयोजित की गयी।जिसमें प्रमुख वक्त प्रोफ़ेसर अच्युत चेतन और अभिजीत गुप्ता ने अपने विचार व्यक्त किये।
कहा कि पहले ताम्ब पत्र और भोज पत्र पर पुस्तकें लिखी जाती थी जिसका अपना महत्व था।समय के साथ बदलाव आया और प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल बुक तक बात आयी।पुस्तकों का इतिहास हज़ारों साल का इतिहास रहा है।पुस्तकें ज्ञान को बढ़ाती है,यूनिवर्सल चीज़ों को सामने लाती हैं।डिजिटल दौर में पुरानी और दुर्लभ पुस्तकों को बचाना आसान हुआ है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक फॉर्मेट में चीज़ें समय समय पर बदलती रहती है जिसे लंबे समय तक बचाना कठिन होता है,ऐसे में प्रिंटेड पुस्तकों का अपना अस्थायी महत्व है।कहते हैं अक्षर का क्षय नहीं होता है।पुस्तकों के इतिहास को समझने के लिए समाज के इतिहास को समझना पड़ेगा।समाज का इतिहास को जानने के लिए किताबों का इतिहास जानना महत्वपूर्ण है।
इस सत्र में कई स्रोताओं अपने अपने सवाल रखे जिसका संतोषजनक जवाब वक्ताओं ने दिया।
दूसरे सत्र का विषय "हिंदी कविता का सौंदर्य आलोक"* था।जिसमें कवि विनय सौरभ एवं कवि कथाकार रणेंद्र ने शिरकत किया।सत्र का संचालन प्रोफ़ेसर यदुवंश प्रणय ने किया।*
यदुवंश प्रणय ने केदार नाथ सिंह की कविता से शुरुआत करते हुए कहा कि आज की कविता सामाजिक सरोकार और उसके सौंदर्य को विशेष कर लंबी कविताओं के परिपेक्ष्य में कैसे देखते हैं।जिसपर कवि कथाकार रणेन्द्र ने कहा कि परिवेश को समझना जरूरी है तभी शब्द को समझ सकते हैं।भाषा की ताकत को महसूस कीजिये तभी आप कविता के सौंदर्य को महसूस कर सकते हैं।आजादी के बाद हिंदी कविताओं में सामाजिक सरोकार का दायरा बढ़ा है।मुक्तिबोध की कविता "अंधरे में" तथा धूमिल की कविता "पटकथा" को इस संदर्भ में देखा परखा जा सकता है।यह दोनों कविताएं उतनी ही प्रासंगिक हैं जितना उस वक़्त थी।कहा कि कोई भी कविता महान तभी बनती है जब अहं का विसर्जन उसमे करते हैं।
इसी कड़ी में एक सवाल का जवाब देते हुए विनय सौरभ ने कहा कि हिंदी कविता की नई पीढ़ी बहुत ही सशक्त और समृद्ध रही है आज काफी कुछ लिखा जा रहा है।लेकिन पठनीयता का संकट भी इस दौर की एक महत्वपूर्ण समस्या है।सोशल मीडिया ने लेखकों को एक बड़ा प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया है लेकिन उसके खतरे भी हैं क्योंकि वहां कोई संपादक नहीं होता है।ऐसे में बेहतर चीजों का चयन करना बहुत कठिन हो जाता है।
इसी कड़ी में कवि कथाकार रणेन्द्र ने कहा कि जब कोई नया कवि लिखता है तो उसे अपने परम्पराओं में जाना चाहिए जहां उसे एक समृद्ध जीवन दृष्टि मिलती है।हमारे पुरखों कवियों ने अपने परम्पराओं को जाना समझा तभी वे वट वृक्ष बन पाए नई पीढ़ी के कवियों को भी उस वट वृक्ष की जड़ों तक जाना चाहिए।
सत्र में प्रेम कविताओ पर चर्चा करते हुए रणेन्द्र ने कहा कि प्रेम कविताओं में आत्म मुग्धता तो है लेकिन दुनिया को बचाने की चिंताएं भी मौजूद हैं।इसी कड़ी में झारखंड की आदिवासी कविता और उसकी नयी पीढ़ी पर चर्चा हुई जिसपर वक्ताओं ने कहा कि आज आदिवासी कविताओं में जो नई पीढ़ी उभर कर आयी है वह बहुत जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ रही है।झारखंड के परिपेक्ष्य का स्वर इन कविताओं में मुखर है।
इस सत्र में कई स्रोताओं अपने अपने सवाल रखे जिसका संतोषजनक जवाब वक्ताओं ने दिया।
तीसरा एवं महत्वपूर्ण सत्र फ़ूड एंड लिटरेचर अर्थात खानपान एवं साहित्य पर केंद्रित रहा।
इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेश पंत ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से जुड़कर अपनी बातों को रखा।
खानपान और साहित्य के अंतर संबंधों पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय खानपान में विविधता और बहुलता है।लेकिन वह साहित्य में नहीं झलकता है।लेकिन ऐसा भी नहीं है कई महत्वपूर्ण पुस्तकें ऐसी हैं विशेषकर कहानी और उपन्यास जिसमें खाने की महक मौजूद है।उसमें खानपान का वर्णन है।पर्व त्यौहार और उपवास के अवसर पर विभिन्न व्यंजनों के स्वाद की जो अनुभूतियां हैं उसे महसूस कराने का कार्य भी साहित्य ने किया है।लोक कथाओं और लोक गीतों में भी छप्पन भोग की बातें कही गयी हैं।जिससे हम खानपान और साहित्य के अंतर संबंधों को समझ सकते हैं।कहते है कि खाने और साहित्य का जो एक रिश्ता है वह बड़ा अद्भुत है।यदि आप अरसिक हैं तो न तो आप खाने का आनंद ले सकते हैं न ही साहित्य का।
चर्चा के क्रम में पुष्पेश पंत ने कई रोचक प्रसंग भी सुनाए जिसे सुनकर स्रोत काफी खुश हुए।इतना ही नही सबसे अधिक सवाल जवाब किये गए जिसमें महिला स्रोताओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।
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