दिनांक- 7 फरवरी 2020
प्रेस विज्ञप्ति संख्या-130
ऐसे लोग जिन्होंने अपने समाज-अपने संस्कृति के लिए बहुत कुछ किया है...
गोड्डा के बोआरीजोर में पले-बढ़े डॉ धुनी सोरेन को विदेश से खींच लाती है यहाँ की मिट्टी और संस्कृति...
इंगलैंड में डाक्टर के रुप में सेवा देने वाले पहले संताल आदिवासी रहे हैं धुनी सोरेन...
सेवानिवृत होने के बाद भी समाज सेवा का है जुनून...
डॉ धुनी सोरेन संताल जनजातीय समाज में जाना हुआ नाम है। देश से बाहर रहते हुए भी उन्होंने अपनी माटी से आज भी लगाव नहीं छोड़ा है।वे इंगलैंड के लीवरपुल में रहते हैं। वहां संताल आदिवासी डॉक्टर के रुप में अपनी ख्याति अर्जित करने वाले और बसने वाले वे पहले शख्स हैं।मूल रुप से गोड्डा के बोआरीजोर में पले-बढ़े डॉ धुनी अक्सर दुमका-गोड्डा आते रहते हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हमेशा ही उनकी भागीदारी दिखती है।लंदन में रहकर भी वे संताल परगना की हर गतिविधि पर जानकारी रखते हैं और सोशल मीडिया के जरिये लोगों से संपर्क बनाये रखते हैं। संताल परगना से जनजातीय संताल समाज में वे एक उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज को हमेशा नयी दिशा देने का काम किया है।वे लंदन में भी भारतीयों के लिए बहुत से सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हैं, दुमका-गोड्डा में भी सामाजिक कार्यो को बढ़ावा देने में अपनी भूमिका निभाते हैं।गरीब बच्चों को शिक्षा दिलाने की बात हो या कोचिंग की, वे ऐसे कार्य कराते रहे हैं।इस इलाके में वे हर साल मोतियाबिंद ऑपरेशन का भी विशाल कैम्प लगवाते हैं.
डॉ धुनी सोरेन का डॉक्टर बनने का संघर्ष काफी प्रेरक है। उनका जन्म आजादी के 12 साल पहले हुआ था।उस वक्त इतने मिडिल व हाई स्कूल भी नहीं थे।5 मील दूर ठाकुरगंगटी-राजाभिठा में उन्हें मिडिल तक की पढ़ायी के लिए आना होता था।जब देश आजाद हुआ, तब वे सातवीं पास कर चुके थे।बाद में पथरगामा से हाई स्कूल गये. यहां हॉस्टल में रहे।रात को जिस कमरे में सोते थे, उसी में फिर अपने सारे सामान समेट कक्षा करनी होती थी।यहीं 9वीं की परीक्षा के दौरान एक बार उन्हें कालाजार हुआ, इससे उनकी परीक्षा छूट गयी।इसी बीमारी ने उन्हें डाक्टर बनने के लिए प्रेरित किया।बाद में उन्हें उनके कक्षा में प्रदर्शन के आधार पर प्रमोट कर किया गया, उन्होंने जिला स्कूल में भी पढ़ाई की। फिर पटना साइंस कॉलेज में जब आवेदन किया, तो बायलॉजी में उनका एडमिशन ही नहीं हो सका।डाक्टर बनने की ठान रखी थी, इसलिए बायलॉजी ही उन्हें पढ़ना था। अब उनके पास साल भर इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।ऐसे में उन्होंने साल भर के समय का भरपूर उपयोग करने की ठानी। गांव में कोई डाकघर नहीं था।उनके पिता ने घर में एक छोटा सा कमरा दिया और वे 20 रुपये प्रतिमाह के रियायती वेतन पर पोस्ट मास्टर बन गये।सालभर गांव में रहकर जमकर खेती भी की और पहली बार अपने क्षेत्र में मूंगफली की पैदावार की।दूसरे साल आवेदन किया, तो बायलॉजी में दाखिला हो गया।इंटरमीडिएट ऑफ साइंस करने के बाद वे तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज, पटना (जिसे पीएमसीएच कहा जाता है) में गये और मेडिकल की.
बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी रहे डॉ धुनी सोरेन ने पायलट की ट्रेनिंग भी ली थी।छोटे विमान वे चलाया भी करते थे।वे बताते हैं कि बचपन में गांव की पगडंडियों और खेतों के उपर उनका बालमन उपर उड़ने का और हवा में गोते लगाने का सपना देखता था।यह सपना भी उनका पूरा हुआ, जब सरकार ने युवाओं को ऐसी ट्रेनिंग दिलाने की योजना बनायी, ताकि सेना की ओर उनका झुकाव बढ़े।टाइगरमोथ जैसे टू सीटर विमान से नीले आसमान में उड़ान भरना उन्हें काफी पसंद था।इसके लिए वे अक्सर पटना फ्लाइंग क्लब भी जाते रहते थे।
1965 में डाक्टर के रुप में धुनी सोरेन इंगलैंड पहुंचे. एक संताल युवक को वहां डॉक्टर के रुप में देख दुमका के डिपुटी कमिश्नर रह चुके डॉ डब्ल्यू जी आर्चर बेहद प्रसन्न हुए।डॉ आर्चर ने उनसे उनकी भविष्य की योजना के बारे में पूछा और जब उन्होंने उनसे कहा कि उन्होंने अपना प्रशिक्षण पूरा कर लिया है और वे भारत वापस जाने की योजना उम्मीद कर रहे हैं तो उन्होंने उन्हें प्रेरित किया कि वे अंधेरे से बाहर निकलने में कामयाब रहे हैं और वे यह कार्य वहां के युवाओं-वहां के अपने समाज के लिए यहीं से करें।वहां के लोगों के लिए वे आजीवन कार्य करें।
डॉ धुनी सोरेन का मानना है कि जनजातीय समाज कलम-कागज से ही शक्तिशाली बन सकता है। पढ़े-जरुर पढ़े, क्योंकि इसके बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं।पढ़ेगे तो कई अवसर दिखेंगे। यह कहना आज गलत है कि गरीबी बाधक है।वे मानते हैं कि गरीबी नहीं, दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी ही बाधक होती है।इच्छाशक्ति की बदौलत ही उन्होंने सबकुछ हासिल किया। वे मानते हैं कि सभी को नौकरी नहीं मिल सकती, इसलिए खेती-बाड़ी भी करें, नयी तकनीक अपनायें।हूनर से ही आदिवासी समाज को प्रगति की ओर आगे बढ़ाया सकता है।दूसरी भाषा सीखें, पर अपनी भाषा, रीति-रिवाज नहीं भूलें।अपनी मिट्टी-संस्कृति को न भूलें।वे कहते हैं कि अभी भी वे संताल परगना के नदियों के कल-कल बहते पानी, पारंपरिक संगीत और गीतों की आवाज सुन सकते हैं।क्यों मिट्टी से उन्हें आज भी उतना ही प्रेम है, जितना प्रेम उन्हें उस वक्त था, जब वे बोआरीजोर गांव की गलियों में नंगे पांव ही घूमा करते थे।
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