Monday 17 February 2020

दिनांक- 8 फरवरी 2020
प्रेस विज्ञप्ति संख्या-138

ऐसे लोग जिन्होंने अपने समाज-अपने संस्कृति के लिए बहुत कुछ किया है...

पांच दशक से संताली साहित्य साधना में लगें हैं चुंडा सोरेन 'सिपाही'

आज 8 फरवरी को 77 साल की आयु पूरी कर चुके संताली के मूर्धन्य साहित्यकार, लेखक और पत्रकार चुंडा सोरेन सिपाही झारखंड ही नही झारखंड से बाहर भी अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। मूल रूप से संताली के लेखन में पांच दशक से इनकी सक्रियता है।पहले सरकारी शिक्षक के रूप में उन्होंने शिक्षा का प्रसार किया, तो उसके बाद होड़ सोम्वाद के संपादक के रूप में 1984 से साहित्य साधना में लगे रहे हैं।होड़ सोम्वाद का प्रकाशन सूचना एवं जनसंपर्क विभाग करती है।इस पत्रिका के प्रकाशन को नियमित बनाये रखने में भी उनकी भूमिका अहम मानी जाती है। वे 1979 से सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के संगठनकर्ता के तौर पर गीत व नाट्य प्रभाग से भी सम्बद्ध रहे। उनकी साहित्यिक कृतियों को संताली साहित्य जगत में मानक के तौर पर देखा जाता है।यही वजह है कि इनकी पुस्तकें और रचनाओं को इंटरमीडिएट से लेकर पोस्ट ग्रेजुएट तक के सिलेबस में शामिल किया गया है। इतना ही नहीं इनके आलेख और रचनाओं को आधार बनाकर कई एशियाई देशों में शोधकार्य भी हुए हैं।आज भी शांति निकेतन विवि बोलपुर के कई शोधार्थी इनका सानिध्य प्राप्त कर रहे हैं।संताली का कैलेंडर भी इन्होंने तैयार किया, तो दर्जन भर पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया, पुस्तकें भी लिखी।उनकी प्रमुख रचनाओं में सरना होड़ रे संताल कोआक जियोन दर्शन(glimpses of sanyal life sarna religion), पिया पोराकनी, तिकिञ बातोली, सरना, सोटानेन सृजोन आदि प्रमुख हैं।उन्हें बिहार सरकार ने संताली साहित्य की सेवा के लिए सम्मानित किया था तो कई अन्य मंच उन्हें सम्मानित करते रहें हैं।
संप्रति चुंडा जी सिदो कान्हू मुर्मू विश्व विद्यालय के संताल अकादमी से जुड़े हुए हैं। साहित्य अकादमी दिल्ली के सलाहकार के तौर पर भी 2017 तक सक्रिय रहे और संताली को मुकाम दिलाने का प्रयास किया।वे कहते हैं कि उनका प्रयास संताली की सेवा करना है, इस भाषा को उस मुकाम तक पहुंचाने का प्रयास है, जहां आज इसे होना चाहिए था। वे कहते हैं कि संताली भाषा विकास की ओर अग्रसर है, पर इसे देश विदेश तक पहुचाने का प्रयास करते रहना होगा।युवा पीढ़ी को इसमें सशक्त भागीदारी निभानी होगी। साहित्य लेखन में अभिरुचि दिखानी होगी। उनका मानना है कि साहित्य को सशक्त कर ही किसी भाषा की सेवा की जा सकती है।

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